कविता – जीवन की रीत

सी ए राकेश वार्ष्णेय, नई दिल्ली

शीर्षक – जीवन की रीत

गिरकर उठना उठकर गिरना ,
यही जीवन की रीत है ।
कुछ मत सोच तू प्यारे
ये ही जीवन की प्रीत है।

इस जीवन का यही है दस्तूर
सारे अपने हो गए अपनों से दूर
जिसके संग हो गैर संगी साथी
जीवन में उसकी बड़ी जीत है

अपने ही गिराते है, करके जद्दोजहद यहां
सब कुछ कर गुजरता हैं , गिराने में जहां ।।
वरना परायों मैं ऐसी हिम्मत समय है कहां
सात सरगम का मजा अब कहां संगीत में

कर ले तू लाख जतन प्यारे,
होगा बही जो राम रच धारे ।।
बस तू चलता रह अपनी ही डगर मैं ,
मंजिल होगी आसान हर बात चीत में

देख तो उसकी रज़ा में है कितना दम ,
तू अपनी कर उसे ना कर बेदम ।
ना डर वो ही बड़ा रहम दिल है ,
बस तू विश्वास कर, सफाई रख अपनी नीत में

रख तू परमेश्वर पर, पूरी आस्था विश्वास ,
झोलियां भर देगा करते हुए लीला रास।
कोशिश कर और पहुंचे वहां तक ,
वह तो दरवार सजाए बैठा है।।

कहे सीए बाबा यहां रोज होवे चमत्कार ,
बस झुक कर ले एक बार तू उसे नमस्कार ।
कर ले खुद को इस तरह से बुलंद ,
दुनिया के लिए दुनिया बने एक नई रीत में ।।

साहित्य 24/ सीए राकेश वार्ष्णेय नई दिल्ली

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