काँधे पर दुपट्टा:साड़ी की शान-चंचल हरेंद्र वशिष्ट

*काँधे पर दुपट्टा:साड़ी की शान*

*धीरे धीरे बनी एक अलग पहचान*

चुन्नी/दुपट्टे/शॉल और साड़ियाँ मुझे हमेशा से ही बहुत आकर्षित करती रही हैं शायद इसकी एक वजह यह भी हो कि मैंने बचपन से ही अपनी माँ को सदैव साड़ी में लिपटी हुई देखा। माँ की वो सौम्य छवि हृदय पर आज तक अंकित है। हर तरह की साड़ी को बहुत ही सलीके से पहना करती थी। मौसम ,पर्व/उत्सव या आयोजन के हिसाब से माँ का साड़ी चयन बेमिसाल था। साथ ही माथे पर बड़ी गहरी लाल बिंदी,माँग में सिंदूर,हाथों में काँच की अक्सर हरी/लाल चूड़ियाँ। इसीलिए जैसे ही थोड़ी बड़ी हुई तो अक्सर माँ की साड़ियाँ लपेट कर दर्पण में खुद को निहार कर खुश होती।

हमारे स्कूल के दिनों में तो यूनिफॉर्म में सलवार कमीज के साथ दुपट्टा पहनना भी अनिवार्य था, किशोरावस्था से आगे बढ़ते हुए घर और बाहर की पोशाक भी सलवार कमीज और चुन्नी ही हुआ करती थी उन दिनों।

इसी शौक के चलते अक्सर स्कूल में टीचर्स डे और सांस्कृतिक कार्यक्रम में साड़ी पहनने का मौका कभी नहीं चूकती थी। कालेज पास करके बीएड में टीचर्स ट्रेनिंग और अक्सर सखी सहेलियों के विवाह में भी साड़ी पहनने का शौक पूरा करने का भी खूब मौका मिला।

बीएड पास होते ही एक स्कूल में अध्यापिका के रूप में कार्यरत होने पर एक बार फिर से मम्मी की तरह तरह की साड़ी फिर मुझे आकर्षित करने लगीं और मैं प्रतिदिन सुबह अपनी मम्मी की साड़ियां पहनकर स्कूल जाने लगी यद्यपि सलवार सूट पहनकर जा सकती थी लेकिन साड़ी पहनने का बहाना जो ठहरा, क्यूंकि शौक़ तो आखिर शौक होता है।

इस तरह से रंग बिरंगी चुन्नियाँ/दुपट्टे और सिल्क,शिफान,कॉटन आदि की साड़ियां मेरे मन को खूब रिझाती रहीं।

ब्याह की उम्र हुई तो विवाह भी ऐसे परिवार में हुआ जहां साड़ी पहनना रिवाज भी रहा और अनिवार्यता भी तो इस हिसाब से मेरे मन की खुशी आप सब खूब समझ सकते हो, इतना ही नहीं, अभी कुछ वर्षों गृहस्थी में बच्चों के लालन-पालन के बाद जब मैंने एक बार फिर से स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू किया तो वहां नित्य प्रति अलग अलग तरह की डिजाइनर साड़ियां पहनने का शौक फिर से बरकरार रहा। और तो और फिर आगे भी मजेदार बात यह हुई कि जैसे सब मेरे अनुसार ही चल रहा हो यानि कुछ समय बाद जब एक स्कूल से मैंने दूसरा स्कूल बदला तो वहाँ साड़ी पहनना कम्पल्सरी था यानि विद्यालय में टीचर्स के लिए ड्रेस कोड, बस फिर क्या था,अंधे को क्या चाहिए दो आंखें, मेरा तो जैसे रोम रोम खिल उठा था। साड़ियां पहनने का शौक मतलब साड़ियों की खरीदारी का भी शौक। बाज़ार में शोरूम में टंगी हुई साड़ियां मुझे किसी न किसी बहाने खरीदने को उकसातीं और मैं खुद को रोक नहीं पाती थी।

साड़ियों के साथ सर्दियों में मैचिंग शॉल और गर्मियों में मैचिंग दुपट्टा निजी तौर पर मेरी आवश्यकता भी थी और स्टाइल भी। फ़ैशन का इससे कोई लेना-देना नहीं था। आवश्यकता बताऊंगी तो आप सब यकीनन मान जाएंगे कि वाकई यह ज़रूरी है पर उससे पहले इसी कथा क्रम में आगे बात पूरी करती चलूं तो हुआ यह कि अध्यापिका होते होते काव्य जगत में पदार्पण किया और अब मेरी पहचान एक कवयित्री/लेखिका के रूप में होने लगी। अक्सर कवि सम्मेलन और मुशायरे आदि में मेरा जाना होता और वार्डरोब में तरह तरह की साड़ियां मुझे देख मचलने इठलाने लगतीं। कवि सम्मेलन और मुशायरे आदि में औपचारिक तौर पर सम्मानित करते हुए अक्सर अंग वस्त्र/दुपट्टा/पटका आदि पहनाया जाता है तो वो सब जो मेरा निजी स्टाइल था,अब इस तरह से व्यक्तित्व का हिस्सा बन गया।

सम्मान और गरिमा का प्रतीक यह दुपट्टा जिसे पाश्चात्य परिधान के प्रशंसकों ने तो कब का भुला रखा था बल्कि यूं कहें कि दशकों से हमारी भारतीय युवतियां भी इसे पीछे छोड़ आगे बढ़ चलीं, क्यूंकि सशक्तिकरण की दिशा में कोई भी व्यक्ति अपनी संस्कृति, अपनी भाषा,अपना परिधान और अपना खान-पान ही सबसे पहले छोड़ता है तो एक समय आया कि नारी ने भी दुपट्टे और साड़ी को बंधन मानकर इसका त्याग करना शुरू कर दिया था लेकिन मैं इसके मोह से कभी मुक्त नहीं हो सकी। कहा जाता है कि अच्छी चीजें, अच्छी बातें, अच्छा व्यवहार और अच्छे लोग अपना प्रभाव अवश्य छोड़ते हैं और इसका उदाहरण है कि भारतीय संस्कृति और परंपरा में साड़ी और दुपट्टे का अस्तित्व कभी नहीं मिटा। यूं तो हमारी भारतीय संस्कृति में बहुत पहले से शादी ब्याह उत्सव आदि मांगलिक कार्यों में तो साड़ी पर ओढ़नी/ चुनरी को पहनने की परंपरा रही है लेकिन सामान्यतः नहीं पर देखते ही देखते आज न जाने कितनी ही महिलाओं ने साड़ी और दुपट्टे को सर्वाधिक फैशनेबल और स्टाइलिश ड्रेस के तौर पर अपना लिया है।

दशकों पहले जिसे मैंने अपने हिसाब से पहनना शुरू किया था वो आज का लेटेस्ट फ़ैशन है यानि साड़ी विद दुपट्टा,साड़ी विद शॉल, हर मौसम में,हर फंक्शन में, बिना ज़रूरत ही,बस एक नए स्टाइल/ फैशन के तौर पर आजकल हर किसी को पहने हुए देखा जा सकता है जबकि जैसा कि मैंने ऊपर उल्लेख किया कि मैंने इसे ज़रूरत के हिसाब से पहनना शुरू किया था, अक्सर मुझे साड़ी के साथ दुपट्टा पहने हुए देखकर अनेक परिजनों और मित्र पूछते कि यह साड़ी पर दुपट्टा? उनमें से कुछ हैरत से देखते तो कुछ मुस्कुराकर और कुछ अलग ही अंदाज से , शायद उन्हें मुझे इस तरह देखकर कुछ अजीब-सा लगता होगा पर मेरी अपनी च्वाइस,अपनी पसंद, अपनी ज़रूरत थी…तो जानिए कैसे?

सुबह सुबह ऑटो में सर्द हवाओं से खुद को बचाने के लिए स्टॉल और शॉल को रास्ते में कान/सिर से लपेट कर जाना और बाद में आवश्यकता न होने पर एक तरफ़ कंधे पर लटकाए रखना, गर्मियों में सूर्यदेव के ताप से बचाए रखने को सिर पर दुपट्टा ओढ़ना और बाद में पटके की तरह से दोनों कंधे की तरफ़ से आगे की ओर पहने रखना।

ऑटो की सवारी करते हुए दुपट्टा या स्टॉल सिर पर ओढ़ने/लपेटने से बाल भी खराब नहीं होते,साथ ही यह चेहरे पर धूल मिट्टी से भी बचाव कर देता है। तो कहिए मित्रों,,है ना कितने काम का और ज़रूरी!, यह दुपट्टा/चुन्नी और स्टॉल/शॉल !

*स्वलिखित*

*हिंदी प्राध्यापिका थियेटर प्रशिक्षिका कवयित्री लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता*

*चंचल हरेंद्र वशिष्ट,नई दिल्ली भारत*